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भारत एवं नेपाल के पूर्वी क्षेत्रों में जो महापर्व बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है, वह है छठ पूजा। चार दिनों तक चलने वाला यह त्योहार सूर्य-भक्ति, श्रद्धा, स्वच्छता, उपवास एवं प्रकृति-सम्मान का अनूठा संयोजन है। इसमें विशेष रूप से सूर्यदेव (सूर्य) तथा छठी मइया (छठी मइया) की आराधना की जाती है। आज हम इस लेख में विस्तार से जानेंगे कि छठ पूजा *क्यों* मनाई जाती है, इसकी *शुरुआत/उत्पत्ति* क्या है, इसका *धार्मिक व सामाजिक महत्व* क्या है और इस पर्व में जिन अनुष्ठानों की परम्परा है, उनका क्या अर्थ है।
1. Chhath Puja : एक परिचय
छठ शब्द हिंदी-भोजपुरी में “छठे (दिवस) वाले” तिथि को दर्शाता है — अर्थात् कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि। यह पर्व मुख्यतः बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।
यह पर्व चार दिन-चार रातों तक चलता है, जिसमें व्रत, शुद्ध भोजन, नदी-तट पर खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना, और अगली सुबह फिर से अर्घ्य देना शामिल है। इस प्रकार छठ पूजा एक उत्सव मात्र नहीं, बल्कि श्रद्धा-भक्ति, संयम और प्रकृति-योग का मिलाजुला रूप है।
2. छठ पूजा की शुरुआत एवं इतिहास
वैदिक व सूर्योद्गम परम्परा
सूर्य-पूजा का प्रमाण हमारे प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। जैसे कि ऋग्वेद में सूर्य-देव के स्तुतिमंत्र मौजूद हैं, सूर्य को जीवित जगत के मूल स्रोत के रूप में देखा गया है।
ऐसा कहा जाता है कि कुछ विद्वान इसे वेदों से भी पूर्व की परम्परा मानते हैं — क्योंकि सूर्य-उपासना मानवीय जीवन के आरंभ से जुड़ी हुई रही है।
पौराणिक कथाएँ और ऐतिहासिक संदर्भ
छठ पूजा के विविध पौराणिक स्रोत हैं — उनमें प्रमुख हैं:
- कर्ण की कथा: कर्ण, सूर्य के पुत्र माने जाते हैं। कहा जाता है कि वे जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया करते थे। इस प्रकार कुछ लोग मानते हैं कि छठ पूजा की नींव इसी से पड़ी।
- द्रौपदी व पांडवों की कथा: कुछ स्रोतों के अनुसार महाभारत काल में द्रौपदी ने छठ-व्रत किया था।
- सीता व राम की कथा: रामायण के अनुसार, राम-सेत की विजय के बाद सीता ने सूर्य एवं षष्ठी देवी का व्रत किया था। इस कथा को कुछ लोग छठ पूजा की उत्पत्ति से जोड़ते हैं।
इस प्रकार, छठ पूजा का इतिहास सिर्फ एक समय-बद्ध घटना नहीं है, बल्कि कई युगों, परम्पराओं व स्थानीय आस्थाओं का समागम है।
क्षेत्रीय विकास और लोक आस्था
छठ पूजा मुख्य तौर पर बिहार-झारखंड-पूर्वी यूपी तथा नेपाल में परम्परागत रूप से चला आ रहा है। इस क्षेत्र में खेत-खलिहान, नदी-तट, सूर्य-उदय-अस्त जैसी प्राकृतिक घटनाओं का महत्व रहा है, जिससे इस पूजा को सामाजिक-सांस्कृतिक आधार मिला।
समय-साथ इस पर्व ने बड़ी संख्या में प्रवासी-बिहारियों और भोजपुरीभाषी समुदायों के साथ भारत के अन्य हिस्सों तथा विदेशों में भी पैर पसारे हैं।
3. छठ पूजा क्यों मनाई जाती है? (महत्व एवं कारण)
सूर्यदेव की उपासना व जीवन-स्रोत
सूर्यदेव को हिन्दू धर्म में सबसे प्रमुख देवता माना गया है — क्योंकि जीवन-चक्र, मौसम-परिवर्तन, कृषि-उत्पादन, स्वास्थ्य आदि सूर्य-ऊर्जा से ही प्रभावित होते हैं। छठ पूजा के माध्यम से उस जीवन-दायिनी ऊर्जा के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है।
उद्धरण के तौर पर: “Chhath Puja is dedicated to the Sun God … as it is thought that the sun is visible to every being and is the basis of life of all creatures on Earth.”
षष्ठी मइया की आराधना
छठ पूजा में सूर्यदेव के साथ-साथ षष्ठी मइया का भी पूजन होता है। षष्ठी मइया को स्त्रियों द्वारा विशेष श्रद्धा से पूज्य देवी माना जाता है, विशेष रूप से संतान-सुख, स्वास्थ्य एवं परिवार की रक्षा के लिए।
श्रृद्धा, उत्सव, स्वच्छता एवं प्रकृति-सम्मान
छठ पूजा में स्नान, व्रत, नदी-तट पर खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना, शुद्ध भोजन आदि शामिल हैं — ये सभी क्रियाएं संयम, स्वच्छता और आत्म-नियंत्रण की ओर इंगित करती हैं।
उदाहरण के लिए, इस पर्व को “self-discipline, devotion, and purity” जैसा बताया गया है। यही कारण है कि इसे सिर्फ धार्मिक पहलू से नहीं, बल्कि सामाजिक-नैतिक और पर्यावरणीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जाता है।
सामाजिक, पारिवारिक और सामुदायिक आयाम
छठ पूजा सिर्फ व्यक्तिगत श्रद्धा नहीं है — यह पूरे परिवार, रिश्तेदारों और समाज-समूह को जोड़ने वाला कार्यक्रम है। नदी-तट पर परिवार-समुदाय एकत्र होते हैं, प्रसाद बनाते हैं, गीत-भजन करते हैं, रात-भर एक-साथ रहते हैं। ऐसी गतिविधियाँ सामाजिक बंधनों को मजबूत करती हैं।
4. छठ पूजा: चार-दिनीय अनुष्ठान एवं क्रम
छठ पूजा चार दिन तक चलने वाला क्रम है, प्रत्येक दिन का अपना नाम, व्रत-रूप और महत्व है। नीचे इस क्रम को विस्तार से बताया गया है:
पहला दिन – “नहाय-खाय”
पहले दिन व्रति नदी-तट या किसी जल-स्रोत में स्नान करते हैं एवं घर को स्वच्छ करते हैं। इसके बाद सात्विक भोजन ग्रहण किया जाता है, जिसमें आमतौर पर लौकी, चने की दाल, गुड़ आदि शामिल होते हैं। इस दिन भोजन हल्का, बिना लहसुन-प्याज का और स्वच्छता को ध्यान में रखकर बनाया जाता है।
दूसरा दिन – “खरना”
दूसरे दिन व्रति दिनभर निर्जला व्रत रखते हैं (खाना-पीना नहीं) और शाम को सूर्यदेव व षष्ठी मइया को प्रसाद अर्पित करते हैं। इस प्रसाद में प्रमुख है खीर, रोटी-घृत-गुड़ आदि। इस दिन के व्रत के बाद तीसरे दिन का मुख्य अर्घ्य आरंभ होता है।
तीसरा दिन – “संध्या अर्घ्य” (शाम-अर्घ्य)
तीसरे दिन शाम करीब समय पर व्रति और समर्थक नदी-तट पर खड़े होकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं — आमतौर पर थाली में फल-प्रसाद लेकर, बाँस की ठोकरी आदि सजाकर। इस रात को व्रति उपवास में रहते हैं और अक्सर गीत-भजन, लोकगीत होते हैं।
चौथा दिन – “उषा अर्घ्य” (सुबह-अर्घ्य) और व्रत निर्मोचन
चौथे दिन सुबह सूर्योदय के समय व्रति फिर नदी-तट पर जाकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं — इस क्रिया को “उषा अर्घ्य” कहते हैं। इसके बाद व्रत को तोड़ा जाता है और प्रसाद बाँटा जाता है। 28 इस प्रकार चार-दिन का व्रत पूरी श्रद्धा के साथ समाप्त होता है।
5. छठ पूजा का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व
छठ पूजा केवल धार्मिक क्रिया नहीं — इसका सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव बहुत गहरा है।
- स्वच्छता व प्रकृति-सम्मान: जल-तटों, नदी-किनारों पर पूजा होती है, जिससे स्वच्छता और सादगी की सीख मिलती है।
- परिवार और समानता: पुरुष-महिला, बच्चे-बूढ़े सभी मिलकर पूजा-कर्म करते हैं, व्रत रखते हैं — इससे सामाजिक एकता बढ़ती है।
- सभ्यता-संस्कृति का प्रादेशिक पहचान: बिहार-झारखंड-पूर्वी यूपी की संस्कृति में छठ पूजा एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है, जिससे उस क्षेत्र की याद-पहचान बनी रहती है।
- आर्थिक-सहयोग: इस त्योहार के दौरान स्थानीय बाजार, भोजन-प्रसाद, सजावट-सामान की मांग बढ़ती है, जिससे ग्रामीण व स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
6. वैज्ञानिक-पारिस्थितिक दृष्टि से छठ पूजा
छठ पूजा को सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखा जाता है।
– व्रत और सूर्यप्रकाश: व्रत से शरीर को संयम और आत्म-संचय का अनुभव होता है। सूर्य-उदय-अस्त के समय का आयोजन बताता है कि सूर्यदेव के प्रकाश-प्रवाह का मनुष्य, जल और प्रकृति-चक्र से गहरा संबंध है।
– जल-तट में खड़े रहना: नदी-तट पर खड़े होकर अर्घ्य देना, ठंडी जलवायु में शरीर को अभ्यस्त करता है, सजगता बढ़ाता है।
– सात्विक भोजन: लौकी, चने की दाल, गुड़ आदि का सेवन इस उपवास-प्रसाद में स्वाद के साथ पाचन-अनुकूलता व ऊर्जा-संरक्षण का माध्यम है।
– पर्यावरण-सुरक्षा: स्वच्छता-सम्बन्धी परम्पराएं, नदी-तट की सफाई, प्लास्टिक-उपयोग में कटौती जैसे पहलुओं ने इसे एक पर्यावरण-सुसंगत पर्व बना दिया है।
7. चुनौतियाँ एवं आधुनिक स्वरूप
आज के समय में छठ पूजा के सामने भी कुछ चुनौतियाँ हैं:
- बहुत बड़ी संख्या में लोग नदी-तटों पर जुटते हैं — जिससे सफाई, निगरानी व पर्यावरणीय दबाव बढ़ जाता है।
- धार्मिक व्रत-अनुष्ठानों का पुराना स्वरूप कुछ हिस्सों में बदल रहा है; मोबाइल-फोटो, सोशल-मीडिया पोस्ट ने उत्सव के स्वरूप में बदलाव ला दिया है।
- लेकिन इन सब के बीच, परम्परा को जीवित रखने के लिए विभिन्न सामाजिक संगठनों, सरकारों एवं स्वयंसेवकों द्वारा पहलकदमी की जा रही है — जैसे कि अधिक स्वच्छता-प्रबंध, प्लास्टिक-मुक्त अरघ्य सामग्री आदि।
8. निष्कर्ष
समापन करते हुए कहा जा सकता है कि छठ पूजा एक *सम्यक् समय, समर्पण और सामूहिक श्रद्धा* का प्रतीक है। यह पर्व हमें सिखाता है कि सूर्य-प्रकाश, जल-तट, नदी-प्रकृति, व्रत-संयम, सामाजिक मेल-मिलाप और स्वच्छता – ये सब कितने महत्वपूर्ण हैं। जब हम “क्यों” छठ पूजा मनाते हैं, तो उत्तर सिर्फ “परम्परा” में नहीं मिलता, बल्कि जीवन-चक्र, प्रकृति-संबंध, मानव-मानव संबंध और आध्यात्मिक अनुशासन में मिलता है।
यदि आप इस वर्ष छठ पूजा में शामिल हों या अपने परिवार-समुदाय के साथ श्रद्धा-साथ इसे मनाएं — तो सच्ची श्रद्धा, स्वच्छता, सरलता और सामूहिकता का भाव साथ रखें। इस प्रकार यह पर्व और भी महान, सार्थक एवं यादगार बन जाएगा





